साधक को मंत्र की साधना करने से पूर्व मंत्र पर पूर्ण श्रद्धा और भक्ति व विश्वास होना अत्यावशक है! वर्ना मंत्र साधना में सफल होना कठिन ही नहीं नामुमकिन भी है! अंत: साधक को मंत्र का जाप करते समय पूर्ण मन को एकाग्रचित्त करना जरुरी हैं!
जब साधक अपने मन की क्रिया को नियंत्रित करके मन को एकाग्रचित्त करके जाप करता हैं, तब वो साधक बहार के क्रिया कलाप तो नियंत्रित हो जाता हैं! परन्तु अंतर्मन के क्रिया की गति बाद जाती है! क्यों की मन का स्वाभाव ही चंचल हैं , वो एक पिजरे मैं बंद नहीं होना चाहता हैं! इसलियें साधक को सबसे पहलेकिसी भी हालत मैं अपने मन को अपने वश करना हिं होगा! क्यों की साधना मार्ग पर हमारा शारीर मात्र एक माध्यम हैं! सब हमारे मनपर निर्भर हैं! जब साधक साधना काल मैं आपने मन को एकाग्र करना चाहता हैं, तब हमारा मन उल्टा और क्रियाशील हो जाता हैं! जब साधक अपने मन को एकाग्र करने में सफल हो रहा होता हैं, तब तब उसका व्यव्हार बालने लग्जता हैं! जैसे उसे नैशार्गिक आनंद की प्राप्ति हो रही हो ! उसमे काम , क्रोध, लोभ, अदि लुप्त होने लगता हैं! और वो वैराग्य की तरफ आकर्षित होजाता हैं,संसार उस्केलियें मात्र एक माया हो जाती हैं!
साधक एकाग्र होकर जब साधना करता हैं तब उसे सफलता आसानी से मिल जाती हैं!पर यदि साधक अपने मन और शारीर के इन्द्रियों पर नियंत्रण मैं थोडासा भी ढीला हो जाता हैं तो, उसकी सभी महेनत पाणी मैं मिल जाती हैं! इसलियें साधक को साधा हैं कठोरता से मन को एकाग्र और इन्द्रियों पर अंकुश लगाकर रखना चाहियें !
हमारा मन भौतिक सुखो की तरफ हमेशा हैं आकर्षित होते रहता हैं, भला ही साधक सन्यासी क्यों ना हों! मन को भौतिक सुख से दूर रखने के लियें साधक को कठिन परिश्रम करना पड़ता हैं! और सात हैं कांफिडेंट और धैर्य रखना पड़ता हैं!
जिस शक्ति की साधना साधक करता हैं, वो शक्ति जागृत होने से पहलें अपने सिद्धि प्रदान करने से पहले साधक की परीक्षा लेना कहते हैं! इसके जरियें वो सधक इस सिद्धि के काबिल हैं या नहीं वो जान लेते हैं! जब साधक की प्रत्रता हो तो वो सिद्धि उसे सिद्द हो जाती हैं ! पर इसी परीक्षा मैं मन की एकाग्रता की परीक्षा हो जाती हैं! खाहने के लियें मात्र ये एक माया हैं पर जो साधक मन को एकाग्र करपाता हैं वो हीं इस माया को हरा देता हीं!
!! जय लक्ष्मी मत !!
जब साधक अपने मन की क्रिया को नियंत्रित करके मन को एकाग्रचित्त करके जाप करता हैं, तब वो साधक बहार के क्रिया कलाप तो नियंत्रित हो जाता हैं! परन्तु अंतर्मन के क्रिया की गति बाद जाती है! क्यों की मन का स्वाभाव ही चंचल हैं , वो एक पिजरे मैं बंद नहीं होना चाहता हैं! इसलियें साधक को सबसे पहलेकिसी भी हालत मैं अपने मन को अपने वश करना हिं होगा! क्यों की साधना मार्ग पर हमारा शारीर मात्र एक माध्यम हैं! सब हमारे मनपर निर्भर हैं! जब साधक साधना काल मैं आपने मन को एकाग्र करना चाहता हैं, तब हमारा मन उल्टा और क्रियाशील हो जाता हैं! जब साधक अपने मन को एकाग्र करने में सफल हो रहा होता हैं, तब तब उसका व्यव्हार बालने लग्जता हैं! जैसे उसे नैशार्गिक आनंद की प्राप्ति हो रही हो ! उसमे काम , क्रोध, लोभ, अदि लुप्त होने लगता हैं! और वो वैराग्य की तरफ आकर्षित होजाता हैं,संसार उस्केलियें मात्र एक माया हो जाती हैं!
साधक एकाग्र होकर जब साधना करता हैं तब उसे सफलता आसानी से मिल जाती हैं!पर यदि साधक अपने मन और शारीर के इन्द्रियों पर नियंत्रण मैं थोडासा भी ढीला हो जाता हैं तो, उसकी सभी महेनत पाणी मैं मिल जाती हैं! इसलियें साधक को साधा हैं कठोरता से मन को एकाग्र और इन्द्रियों पर अंकुश लगाकर रखना चाहियें !
हमारा मन भौतिक सुखो की तरफ हमेशा हैं आकर्षित होते रहता हैं, भला ही साधक सन्यासी क्यों ना हों! मन को भौतिक सुख से दूर रखने के लियें साधक को कठिन परिश्रम करना पड़ता हैं! और सात हैं कांफिडेंट और धैर्य रखना पड़ता हैं!
जिस शक्ति की साधना साधक करता हैं, वो शक्ति जागृत होने से पहलें अपने सिद्धि प्रदान करने से पहले साधक की परीक्षा लेना कहते हैं! इसके जरियें वो सधक इस सिद्धि के काबिल हैं या नहीं वो जान लेते हैं! जब साधक की प्रत्रता हो तो वो सिद्धि उसे सिद्द हो जाती हैं ! पर इसी परीक्षा मैं मन की एकाग्रता की परीक्षा हो जाती हैं! खाहने के लियें मात्र ये एक माया हैं पर जो साधक मन को एकाग्र करपाता हैं वो हीं इस माया को हरा देता हीं!
!! जय लक्ष्मी मत !!

No comments:
Post a Comment